Saturday 25 May 2013

अच्छा लगता है, जब बच्चे सिखाते हैं

बच्चे, पता ही नहीं चलता है, कब बड़े हो जाते हैं? कल तक लगता था कि इन्हें अभी कितना कुछ सीखना है, साथ ही साथ हम यही सोच कर दुबले हुये जा रहे थे कि कैसे ये इतना ज्ञान समझ पायेंगे? अभी तक उनकी गतिविधियों को उत्सुकता में डूबा हुआ स्वस्थ मनोरंजन समझते रहे, सोचते रहे कि गंभीरता आने में समय लगेगा।

बच्चों की शिक्षा में हम सहयोगी होते हैं, बहुधा प्रश्न हमसे ही पूछे जाते हैं। उत्सुकता एक वाहक रहती है, हम सहायक बने रहते हैं उसे जीवन्त रखने में। जैसा हमने चीज़ों को समझा, वैसा हम समझाते भी जाते हैं। बस यही लगता है कि बच्चे आगे आगे बढ़ रहे हैं और हम उनकी सहायता कर रहे हैं।

यहाँ तक तो सब सहमत होंगे, सब यही करते भी होंगे। जो सीखा है, उसे अपने बच्चों को सिखा जाना, सबके लिये आवश्यक भी है और आनन्दमयी भी। यहाँ तक तो ठीक भी है, पर यदि आपको लगता है कि आप उनकी उत्सुकता के घेरे में नहीं हैं, तो पुनर्विचार कर लीजिये। यदि आपको लगता उसकी उत्सुकता आपको नहीं भेदती है तो आप पुनर्चिन्तन कर लीजिये।

प्रश्न करना तो ठीक है, पर आपके बच्चे आपके व्यवहार पर सार्थक टिप्पणी करने लगें तो समझ लीजिये कि घर का वातावरण अपने संक्रमण काल में पहुँच गया है। टिप्पणी का अधिकार बड़ों को ही रहता है, अनुभव से भी और आयु से भी। श्रीमतीजी की टिप्पणियों में एक व्यंग रहता है और एक आग्रह भी। बच्चों की टिप्पणी यदि आपको प्राप्त होने लगे तो समझ लीजिये कि वे समझदार भी हो गये और आप पर अधिकार भी समझने लगे। उनकी टिप्पणी में क्या रहता है, उदाहरण आप स्वयं देख लीजिये।

हम भी समझाने में सक्षम हैं
बिटिया कहती हैं कि आप पृथु भैया को को ठीक से डाँटते नहीं हैं। जब समझाना होता है, तब कुछ नहीं बोलते हो। जब डाँटना होता है, तब समझाने लगते हो। जब ढंग से डाँटना होता है, तब हल्के से डाँटते हो और जब पिटाई करनी होती है तो डाँटते हो। ऐसे करते रहेंगे तो वह और बिगड़ जायेगा। हे भगवान, दस साल की बिटिया और दादी अम्मा सा अवलोकन। क्या करें, कुछ नहीं बोल पाये, सोचने लगे कि सच ही तो बोल रही है बिटिया। अब उसे कैसे बतायें कि हम ऐसा क्यों करते हैं? अभी तो प्रश्न पर ही अचम्भित हैं, थोड़ी और बड़ी होगी तो समझाया जायेगा, विस्तार से। उसके अवलोकन और सलाह को सर हिला कर स्वीकार कर लेते हैं।

पृथु कहते हैं कि आप इतना लिखते क्यों हो, इतना समय ब्लॉगिंग में क्यों देते हो? आपको लगता नहीं कि आप समय व्यर्थ कर रहे हो, इससे आपको क्या मिलता है? थोड़ा और खेला कीजिये, नहीं तो बैठे बैठे मोटे हो जायेंगे। चेहरे पर मुस्कान भी आती है और मन में अभिमान भी। मुस्कान इसलिये कि इतना सपाट प्रश्न तो मैं स्वयं से भी कभी नहीं पूछ पाया और अभिमान इसलिये कि अधिकारपूर्ण अभिव्यक्ति का लक्ष्य आपका स्वास्थ्य ही है और वह आपका पुत्र बोल रहा है।

हमें भी गम्भीरता से लें

ऐसा कदापि नहीं है कि यह एक अवलोकन मात्र है। यदि उन्हे मेरी ब्लॉगिंग के ऊपर दस मिनट बोलने को कहा जाये तो वह उतने समय में सारे भेद खोल देंगे। पोस्ट छपने के एक दिन पहले तक यदि पोस्ट नहीं लिख पाया हूँ तो वह उन्हें पता चल जाता है। यदि अधिक व्यग्रता और व्यस्तता दिखती है तो कोई पुरानी कविता पोस्ट कर देने की सलाह भी दे देते हैं, पृथुजी। लगता है कि कहीं भविष्य में मेरे लेखन की विवेचना और समीक्षा न करने लगें श्रीमानजी।

आजकल हम पर ध्यान थोड़ा कम है, माताजी और पिताजी घर आये हैं, दोनों की उत्सुकता के घेरे में इस समय दादा दादी हैं। न केवल उनसे उनके बारे में जाना जा रहा है, वरन हमारे बचपन के भी कच्चे चिट्ठे उगलवाये जा रहे हैं। कौन अधिक खेलता था, कौन अधिक पढ़ता था, कौन किससे लड़ता था, आदि आदि। मुझे ज्ञात है कि इन दो पीढ़ियों का बतियाना किसी दिन मुझे भारी पड़ने वाला है। माताजी और पिताजी भले ही बचपन में मुझे डाँटने आदि से बचते रहे, पर मेरे व्यवहार रहस्य बच्चों को बता कर कुछ न कुछ भविष्य के लिये अवश्य ही छोड़े जा रहे हैं।

कई बच्चे अपने माता पिता को अपना आदर्श मानते हैं, उनकी तरह बनना चाहते हैं। पर जब उनके अन्दर यह भाव आ जाये कि उन्हे थोड़ा और सुधारा जा सकता है, थोड़ा और सिखाया जा सकता है तो वे अपने आदर्शों को परिवर्धित करने की स्थिति में पहुँच गये हैं। उनके अन्दर वह क्षमता व बोध आ गया है जो वातावरण को अपने अनुसार ढालने में सक्षम है। समय आ गया है कि उन्होंने अपनी राहों की प्रारम्भिक रूपरेखा रचने का कार्य भलीभाँति समझ लिया है।

पता नहीं कि हम कितना और सुधरेंगे या सँवरेंगे, पर जब बच्चे सिखाते हैं तब बहुत अच्छा लगता है।

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